गुरूवार की प्राथना
गायत्री-मंत्र
ॐ भूर्भुवः स्वः |
तत्सवितुवर्रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ||
हे प्राणस्वरूप, दुःखहर्ता और सर्वव्यापक, आनन्द के देने वाले प्रभो ! जो आप सर्वज्ञ और सकल जगत् के उत्पादक हैं, हम आपके उस पूजनीयतम, पापनाशक स्वरूप तेज का ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को प्रकाशित करता है | पिता ! आपसे हमारी बुद्धि कदापि विमुख न हो | आप हमारी बुद्धियों में सदैव प्रकाशित रहें और हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों में प्रेरित करें, ऐसी प्रार्थना है |
_________________________________________________________
|| गणपति वंदना ||
गुरुर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः|
गुर्रुसाक्षात् परब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
प्रणम्य शिरसा देवं, गौरीपुत्रं विनायकम् |
भक्तावासं स्मरे नित्यमायुः कामार्थ सिद्धये ||
वक्रतुण्ड महाकाय कोटि सूर्य समप्रभः |
निर्विघ्नं कुरमे देव सर्वकार्येपु सर्वदा ||
लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय |
निर्विघ्नं कुरमे देव सर्वकार्येपु सर्वदा ||
गजाननं भूतगणाधि सेवितं, कपित्थ जम्वूफलचारु भक्षणम् |
उमासुतं शोकविनाशकारक, नमामिविघ्ननेश्वरपादपङ्कजम् ||
सर्व विघ्न विनाशाय, सर्व कल्याण हेतवे |
पार्वती प्रिय पुत्राय, श्री गणेशाय नमोनमः ||
_________________________________________________________
|| आरती श्री गणेश जी की ||
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा |
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा ||
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा |
लड्डुअन का भोग लगे, संत करे सेवा || जय ||
एक दन्त दयावन्त, चार भुजा धारी |
मस्तक सिन्दूर सोहे, मूसे की सवारी || जय ||
अन्धन को आँख देत, कोढ़िन को काया |
बाँझन को पुत्र देत, निर्धन को माया || जय ||
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा |
शूरश्याम शरण में आये सुफल कीजे सेवा || जय ||
दीनन की लाज राखो, शंभू सूत वारी |
कामना को पूरी करो जग बलिहारी || जय ||
_________________________________________________________
|| आरती श्री लक्ष्मी जी की ||
ॐ जय लक्ष्मी माता, (मैया) जय लक्ष्मी माता |
तुमको निशिदिन सेवत, हर विष्णु धाता || ॐ ||
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता |
सूर्य – चन्द्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता || ॐ ||
दुर्गारूप निरंजनि, सुख -सम्पति दाता |
जो कोई तुमको ध्यावत, ऋधि-सिधि-पाता || ॐ ||
तुम पाताल निवासिनी, तुम ही शुभ दाता |
कर्म प्रभाव प्रकाशिनी, भवनिधि की त्राता || ॐ ||
जिस घर तुम रहती, तहँ सब सद्गुण आता |
सब संभव हो जाता, मन नहीं घबराता || ॐ ||
तुम बिन यज्ञ न होते, व्रत न कोई पाता |
खान पान का वैभव सब तुमसे आता || ॐ ||
शुभ-गुण-मंदिर सुन्दर, क्षीरोदधि जाता |
रत्न चतुर्दश तुम बिन कोई नहीं पाता || ॐ ||
महालक्ष्मी (जी) की आरती, जो कोई नर गाता |
उर आनंद समाता पाप उतर जाता || ॐ ||
_________________________________________________________
|| श्री साईं बाबा जी की आरती ||
आरती उतारे हम तुम्हारी साईं बाबा |
चरणों के तेरे हम पुजारी साईं बाबा ||
विद्या बल बुद्धि, बन्धु माता पिता हो
तन मन धन प्राण, तुम ही सखा हो
हे जगदाता अवतारे, साईं बाबा |
आरती उतारे हम तुम्हारी साईं बाबा ||
ब्रह्मा के सगुण अवतार तुम स्वामी
ज्ञानी दयावान प्रभु अंतरयामी
सुन लो विनती हमारी साईं बाबा |
आरती उतारे हम तुम्हारी साईं बाबा ||
आदि हो अनंत त्रिगुणात्मक मूर्ति
सिंधु करुणा के हो उद्धारक मूर्ति
शिरडी के संत चमत्कारी साईं बाबा |
आरती उतारे हम तुम्हारी साईं बाबा ||
भक्तों की खातिर, जन्म लिये तुम
प्रेम ज्ञान सत्य स्नेह, मरम दिये तुम
दुखिया जनो के हितकारी साईं बाबा |
आरती उतारे हम तुम्हारी साईं बाबा ||
_________________________________________________________
|| आरती श्री शिरडी के साईबाबा की ||
आरती श्री साई गुरुवर की | परमानन्द सदा सुरवर की ||
जाकी कृपा विपुल सुखकारी | दुःख, शोक, संकट, भयहारी || १ ||
शिरडी मे अवतार रचाया | चमत्कार से तत्व दिखाया || २ ||
कितने भक्त चरण पर आये | वे सुख-शांति चिरंतन पाये || ३ ||
भाव धरे मन में जैसा | पावत अनुभव वो ही वैसा || ४ ||
गुरु की लगावे तन को | समाधान लाभत उस मनको || ५ ||
साई नाम सदा जो गावे | सो फल जग मे शाश्वत पावे || ६ ||
गुरुवारसर करि पूजा-सेवा | उस पर कृपा करत गुरुदेवा || ७ ||
राम, कृष्ण, हनुमान रूप में | दे दर्शन जानत जो मन में || ८ ||
विविध धर्म के सेवक आते | दर्शन से इच्छित फल पाते || ९ ||
जय बोलो साईबाबा की | जय बोलो अवधूतगुरु की || १० ||
‘साईदास’ आरती को गावे | घर में बसि सुख, मंगल पावे || ११ ||
________________________________________________________
|| श्री साई चालीसा ||
पहले साई चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं |
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं || १ ||
कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना |
कहाँ जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना || २ ||
कोई कहे अयोध्या के, ये रामचन्द्र भगवान हैं |
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं || ३ ||
कोई कहता मंगलमूर्ति, गजानंद हैं साई |
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नंदन हैं साई || ४ ||
शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते |
कोई कहे अवतार दत्त का, पूजा साई की करते || ५ ||
कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान |
बड़े दयालु दीनबन्धु, कितनों को दिया जीवन दान || ६ ||
कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हे सुनाऊँगा मैं बात |
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात || ७ ||
आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर |
आया, आकर वहीँ बस गया, पावन शिरडी किया नगर || ८ ||
कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँगी उसने दर-दर |
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर || ९ ||
जैसे-जैसे उमर बढ़ी, बढ़ती ही वैसे गई शान |
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान || १० ||
दिग् दिगंत में लगा गूंजने, फिर तो साई जी का नाम |
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा साई बाबा का काम || ११ ||
बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं, हूं निर्धन |
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन || १२ ||
कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान |
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान || १३ ||
स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल |
अन्त:करण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल || १४ ||
भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत बड़ा धनवान |
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान || १५ ||
लगा मनाने साई नाथ को, बाबा मुझ पर दया करो |
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो || १६ ||
कुलदीपक के बिना अंधेरा, छाया हुआ घर में मेरे |
इसीलिए आया हूँ बाबा, होकर शरणगत तेरे || १७ ||
कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया |
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया || १८ ||
दे दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर |
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर || १९ ||
अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में धर के शीश |
तब प्रसन्न होकर बाबा ने, दिया भक्त को यह अशीश || २० ||
‘अल्ला भला करेगा तेरा’ पुत्र जन्म हो तेरे घर |
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर || २१ ||
अब तक नहीं किसी ने पाया, साई कृपा का पार |
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार || २२ ||
तन मन से जो भजे उसी का, जग मे होता है उद्धार |
सांच को आंच नहीं है कोई, सदा झूठ की होती हार || २३ ||
मैं हूँ सदा सहारे उसके, सदा रहूंगा उसका दास |
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस || २४ ||
मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी |
तन पर कपड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्ही सी लंगोटी || २५ ||
सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था |
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था || २६ ||
धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था |
बना भिखारी मैं दुनिया में दर-दर ठोकर खाता था || २७ ||
ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था |
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था || २८ ||
बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार |
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार || २९ ||
पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति |
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति || ३० ||
जब से किए है दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया |
संकट सारे मिटे और, विपदाओं का अन्त हो गया || ३१ ||
मान और सम्मान मिला, भिक्षा मे, हमको बाबा से |
प्रतिबिम्ब हो उठा जगत में, हम साई की आभा से || ३२ ||
बाबा ने सम्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में |
इसका ही संबल ले मैं, हँसता जाऊंगा जीवन में || ३३ ||
साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ |
लगता जगती के कण-कण मे, जैसे ही वह भार हुआ || ३४ ||
‘काशीराम’ बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था |
मै साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था || ३५ ||
सीकर स्वयं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में |
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में || ३६ ||
स्तब्ध निशा थी, थे सोये रजनी आंचल में चाँद सितारे |
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे || ३७ ||
वस्त्र बेच कर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी |
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी || ३८ ||
घेर राह में खड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी |
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि पड़ी सुनाई || ३९ ||
लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो |
अघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो || ४० ||
बहुत देर तक पड़ा रहा वह, वहीँ उसी हालत में |
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीँ उसकी पलक में || ४१ ||
अनजाने ही उसके मुंह से, निकल पड़ा था साई |
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को पड़ी सुनाई || ४२ ||
क्षुब्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो |
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्ही के सन्मुख हो || ४३ ||
उन्मादी में इधर-उधर तब, बाबा लगे भटकने |
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगे पटकने || ४४ ||
और धधकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला |
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला || ४५ ||
समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त पड़ा संकट में |
क्षुभित खड़े थे सभी वहाँ, पर पड़े विस्मय में || ४६ ||
उसे बचाने की खातिर, बाबा आज विकल है |
उसकी ही पीड़ा से पीड़ित, उनकी अन्त:स्थल है || ४७ ||
इतने में ही विधि ने अपनी, विचित्रता दिखलाई |
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई || ४८ ||
लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गाड़ी वहाँ एक आई |
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखे भर आई || ४९ ||
शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा बाबा का अन्त:स्थल |
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल || ५० ||
आज दया की मूर्ति स्वयं था, बना हुआ उपचारी |
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी || ५१ ||
आज भक्ति की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी |
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उमड़े नगर निवासी || ५२ ||
जब भी और जहां भी कोई, भक्त पड़े संकट में |
उसकी रक्षा करने बाबा आते है पलभर में || ४३ ||
युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी |
आपतग्रसत भक्त जब होता, जाते खुग अंर्तयामी || ५४ ||
भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई |
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई || ५५ ||
भेद-भाव मंदिर-मजिद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला |
राम रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला || ५६ ||
घण्टे के प्रतिध्वनि से गूंजा, मस्जिद का कोना कोना |
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना || ५७ ||
चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी |
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी || ५८ ||
सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया |
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया || ५९ ||
ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे |
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे || ६० ||
साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई |
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई || ६१ ||
तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो |
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो || ६२ ||
जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा |
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा || ६३ ||
तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी |
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी || ६४ ||
जंगल जंगल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को |
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को || ६५ ||
धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया |
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया || ६६ ||
गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े |
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े || ६७ ||
इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान |
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान || ६८ ||
एक बार शिरडी में साधु, ढोंगी था कोई आया |
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया || ६९ ||
जड़ी-बूटियां उन्हे दिखाकर, करने लगा वह भाषण |
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन || ७० ||
औषद्यि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शक्ति |
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुक्ति || ७१ ||
अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बिमारी से |
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से || ७२ ||
लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां है न्यारी |
यधपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके है अति भारी || ७३ ||
जो संतात हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए |
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए || ७४ ||
औषधि मेरी जो न ख़रीदे, जीवन भर पछताएगा |
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा || ७५ ||
दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो |
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो || ७६ ||
हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी |
प्रमुदित वह भी मन-ही-मन था, देख लोगों की नादानी || ७७ ||
खबर बाबा को सुनाने को यह, गया दौड़कर सेवक एक |
सुनकर बकुटी तनी और विस्मरण हो गया सबी विवेक || ७८ ||
हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ |
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ || ७९ ||
मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को |
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को || ८० ||
पलभर मे, ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को |
महानाश के महागर्त मे, पहुंचा, दूँ जीवन भर को || ८१ ||
तनिक मिला आबास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को |
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को || ८२ ||
पलभर मे, सब खेल बंद कर, बागा सिर पर रखकर पैर |
सोच रहा ता मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर || ८३ ||
सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में |
अंश ईश का साई बाबा, उन्हे न कोई भी मुश्किल जग में || ८४ ||
स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर |
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर || ८५ ||
वही जीत लेता है जगती, जन जन का अन्त:स्थल |
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है विहाल || ८६ ||
जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है |
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है || ८७ ||
पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के |
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के || ८८ ||
स्नेह सुधा की धार बरसने, लगती है दुनिया में |
गले परस्पर मिलने लगते, जन-जन है आस पास में || ८९ ||
ऐसे अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर |
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपमा आप मिटाकर || ९० ||
नाम द्वारका मस्जिद का, रखा शिरडी में साई ने |
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने || ९१ ||
सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई |
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई || ९२ ||
सुखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान |
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान || ९३ ||
स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे |
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे || ९४ ||
कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे |
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे || ९५ ||
रंग-बिरंगे पुष्प बाग़ के, मंद-मंद हिल-डुल करके |
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे || ९६ ||
ऐसी समुधुर बेला में भी, दुःख आपात, विपदा के मारे |
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे || ९७ ||
सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे |
दे विभूति हर व्यथा, शांति उनके उर में भर देते थे || ९८ ||
जाने क्या अद्धभुत शक्ति, उस विभूति में होती थी |
जो धारण करते मस्तक पर दुःख सारा हर लेती थी || ९९ ||
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए |
धन्य कमल कर उनके निसे, चरण-कमल वे परसाए || १०० ||
काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता |
वर्षो से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता || १०१ ||
गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर |
मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर || १०२ ||
_________________________________________________________
|| गुरुवार आरती ||
ॐ जय बृहस्पति देवा, जय बृहस्पति देवा |
छिन छिन भोग लगाऊँ, कदली फल मेवा || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
तुम पूर्ण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी |
जगतपिता जगदीश्वर, तुम सबके स्वामी || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
चरणामृत निज निर्मल, सब पातक हर्ता |
सकल मनोरथ दायक, कृपा करो भर्ता || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
तन, मन, धन अर्पण कर, जो जन शरण पड़े |
प्रभु प्रकट तब होकर, आकर द्वार खड़े || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
दीनदयाल दयानिधि, भक्तन हितकारी |
पाप दोष सब हर्ता, भव बन्धन हारी || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
सकल मनोरथ दायक, सब संशय तारो |
विषय विकार मिटाओ, सन्तन सुखकारी || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
जो कोई आरती तेरी प्रेम सहित गावे |
जेष्टानन्द बन्द सो सो निश्चय पावे || ॐ जय बृहस्पति देवा ||
_________________________________________________________
|| आरती जय जगदीश हरे ||
ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे |
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे || ॐ ||
जो ध्यावे फल पावे, दुःख बिन से मन का |
सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का || ॐ ||
मात पिता तुम मेरे, शरण गहूॅं किसकी |
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी || ॐ ||
तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी |
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी || ॐ ||
तुम करुणा के सागर, तुम पालन कर्त्ता |
मैं मूर्ख खल कामी, कृपा करो भर्ता || ॐ ||
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति |
किस विधि मिलूँ दयामय ! तुमको मैं कुमति || ॐ ||
दीनबन्धु दुःखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे |
अपने हाथ उठाओ, द्वार पड़ा तेरे || ॐ ||
विषय-विकार मिटाओ, पाप हरो देवा |
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ, संतन की सेवा || ॐ ||
तन, मन, धन जो कुछ है, सब ही है तेरा |
तेरा तुझको अर्पित, क्या लागे मेरा || ॐ ||
ॐ जय जगदीश हरे, प्रभु जय जगदीश हरे |
भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे || ॐ ||
_________________________________________________________